आमिर और अमर्त्य को जोड़ता 'सरोकार'

आमिर ख़ान
बॉलीवुड अभिनेता आमिर ख़ान और नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन में एक बात समान है और वो यह है कि दोनों मृत्युदंड के ख़िलाफ़ हैं.
आमिर और अमर्त्य ही नहीं बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय, गीतकार जावेद अख़्तर, लेखक अमितावा घोष, इंफ़ोसिस के संस्थापक एन आर नारायणमूर्ति और लेखक विक्रम सेठ जैसी कई जानी मानी हस्तियों ने मौत की सज़ा का विरोध किया है.


बयान में कहा गया है कि इस सज़ा से कोई 'उद्देश्य पूरा नहीं होता' और यह अपराध को रोक पाने के मामले में नाकाम रही है.इन हस्तियों ने एक बयान में मृत्युदंड को 'क्रूर और बर्बर' बताते हुए कहा है कि एक सभ्य मानवीय समाज में इसका कोई स्थान नहीं है.
उन्होंने कहा कि मृत्युदंड का फ़ैसला मनमाने और अनुचित तरीक़े से सुनाया जाता है और इसके शिकार ज़्यादातर ग़रीब लोग होते हैं.
साथ ही कहा कि फांसी पर लटकाए जाने के बाद व्यक्ति की ज़िन्दगी वापस नहीं लाई जा सकती है इसलिए एक ऐसी क़ानूनी व्यवस्था में जहां फैसला सुनाने में भूल-चूक की आशंका हो, फांसी की सज़ा का प्रावधान नहीं किया जा सकता.

हस्ताक्षर

इस बयान में कहा गया है कि दुनियाभर मे मृत्युदंड को समाप्त करने के लिए मुहिम चलाई जा रही है और 70% से ज़्यादा देश इसे समाप्त कर चुके हैं.
"किसी एक की जान जाने से जो हानि हुई है उसकी भरपाई के लिए एक और की जान लेना एक ग़लत और ख़तरनाक किस्म के नैतिक तर्क को बढ़ावा देना है. मृत्युदंड की धारणा बुनियादी तौर पर गड़बड़ है"
अमर्त्य सेन, नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री
बयान पर हस्ताक्षर करने वालों में क्लिक करेंआमिर और अमर्त्य सहित कई वकील, कलाकार, अर्थशास्त्री, लेखक तथा नागरिक शामिल हैं.
अमर्त्य सेन ने अलग से एक बयान में कहा, “चूंकि सारी जिन्दगी मैं मौत की सज़ा को ख़त्म करने के लिए प्रतिबद्ध रहा हूं इसलिए जो लोग इस इसे ख़त्म होते देखना चाहते हैं मैं उनकी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाकर खुश हूं.”
देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित क्लिक करेंअमर्त्य सेन ने कहा, “किसी एक की जान जाने से जो हानि हुई है उसकी भरपाई के लिए एक और की जान लेना एक ग़लत और ख़तरनाक किस्म के नैतिक तर्क को बढ़ावा देना है. मृत्युदंड की धारणा बुनियादी तौर पर गड़बड़ है.”

बहस

देश में पिछले कई दिनों से मौत की सज़ा दिए जाने पर बहस जारी रही है.
उच्चतम न्यायालय ने गत 21 जनवरी को क्लिक करें15 दोषियों की मौत की सज़ा को उम्र क़ैद में बदलने का आदेश दिया था. इनकी दया याचिकाओं के मामले राष्ट्रपति के सामने बहुत समय से लंबित पड़े हुए थे.
न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है कि याचिकाओं के निपटारे में हुई लंबी देरी उन्हें राहत दिए जाने का पर्याप्त आधार है.
ग़ौरतलब है कि वर्ष 2004 से 2012 तक भारत में किसी मुजरिम को फ़ांसी नहीं दी गई थी. लेकिन नवंबर 2012 में मुंबई हमलों के दोषी अजमल कसाब और फिर फ़रवरी 2013 में संसद पर हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरु को फांसी दी गई थी.

रोक

अमर्त्य सेन

अमर्त्य सेन का कहना है कि मृत्युदंड की धारणा बुनियादी तौर पर गड़बड़ है.
उच्चतम न्यायालय ने 1993 में दिल्ली में हुए बम धमाके के दोषी देवेंदर पाल सिंह भुल्लर की क्लिक करेंफांसी की सज़ा पर अगले आदेश तक रोक लगा रखी है. इस मामले की अगली सुनवाई 19 फ़रवरी को होनी है.
वर्ष 2011 से भुल्लर का दिल्ली के एक मनोचिकित्सा संस्थान में इलाज चल रहा है. उनके वकील केटीएस तुलसी ने भुल्लर की मानसिक हालत के आधार पर मौत की सज़ा माफ़ करने की मांग की है.
उच्चतम न्यायालय ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के दोषियों की मौत की सज़ा कम करने संबंधी याचिका पर फ़ैसला सुरक्षित रखा है.


हालांकि केंद्र सरकार ने इस याचिका का ये कहते हुए विरोध किया है कि दया याचिका लंबित रहने के दौरान इन दोषियों को किसी तरह की प्रताड़ना या अमानवीय बर्ताव का सामना नहीं करना पड़ा

चीनी युवाओं में बढ़ती गाँधी साहित्य की लोकप्रियता

मार्टिन लूथर किंग, जेम्स लॉसन, नेल्सन मंडेला, बराक ओबामा, आंग सान सू ची, अलबर्ट आइंस्टाइन, जॉन लेनन और अल गोर, इन सब व्यक्तियों में एक बात समान है. इन सभी को महात्मा गांधी के जीवन और विचारों ने प्रेरित किया है.
समय के चलते जहाँ कई विचारक गांधी की घटती महिमा की चर्चा कर रहे थे, वहीं आज गांधी पहले से ज़्यादा लोकप्रिय होते जा रहे हैं. कुछ ऐसा ही हो रहा है चीन में. माओ के गढ़ में आज गांधी को पढ़ने वाले और उनके बारे में जानने की इच्छा रखने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है. गांधी खुद चीन जाने की इच्छा रखते थे लेकिन उन दिनों वहां के हालात ने उन्हें रोक दिया.


आज गांधी चीन की सभी इतिहास की किताबों में पढ़ाए जाते हैं. पिछले साल ही शंघाई की फुडान यूनिवर्सिटी ने भारत सरकार को लिखा था कि वो उनके साथ मिलकर यूनिवर्सिटी में एक गांधी सेंटर खोलना चाहते हैं ताकि उनके छात्रों को महात्मा गांधी और भारत के बारे में और अधिक जानकारी मिल सके.लेकिन अभी हाल ही में एक चीनी प्रोफेसर ने नवजीवन ट्रस्ट से महात्मा गांधी की चुनिंदा रचनाओं को चीनी भाषा मंदारिन में अनुवाद करने और छापने की अनुमति मांगी है. वे चाहते हैं कि गांधी और उनके विचार चीन के कोने-कोने तक पहुँचे. नवजीवन ट्रस्ट की स्थापना गांधी ने ही की थी.

गांधी और माओ

लेकिन आज क्या हो रहा है चीन में जो लोग गांधी को याद कर रहे हैं? साउथ चीन नॉर्मल यूनिवर्सिटी विदेशी अध्ययन विभाग के प्रोफेसर शांग क्वानयू गांधी पर शोध कर रहे हैं.
वे कहते हैं, "साल 1920 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन और लोगों को जुटाने की उनकी क्षमता ने चीनी शासन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था. साल 1950 तक उन पर 27 किताबें और कई सारे लेख प्रकाशित हुए. पत्रिकाओं में उन्हें रूसो और भारत के टॉलस्टाय के रूप में वर्णित किया गया है."
माओ के विचार के बढ़ते असर पर प्रोफेसर शांग कहते हैं, "गांधी के अध्ययन और उन पर लिखे गए लेखों में काफी गिरावट आई क्योंकि गांधी अहिंसा और सद्भाव की वकालत करते थे जो माओ की विचारधारा और उन दिनों चीन के अंदर चल रहे राजनीतिक माहौल से बिलकुल अलग था."
पूर्व भारतीय राजनयिक और गांधीवादी पास्कल एलन नज़ारेथ ने बीबीसी से कहा, "माओ के चीन में विफल होने से पहले कई चीनी विचारक गांधी जी से मिले थे और उनसे चीन की समस्याओं की चर्चा करते थे. आज माओ के बाद लोग चीन में एक बार फिर गांधी की ओर देख रहे हैं."

चीन में सत्याग्रह

सन यात सेन यूनिवर्सिटी के डॉक्टर हुआंग यिंगहोंग ने गांधी की लिखी किताबों, पत्रों और उनके भाषणों का मंदारिन में अनुवाद करने का बीड़ा उठाया है. वह कुछ दिनों पहले अहमदाबाद स्थित नवजीवन ट्रस्ट के अधिकारियों से मिले और उनसे गांधी की चुनिंदा रचनाओं को चीनी भाषा में छापने की अनुमति मांगी.
प्रोफेसर यिंगहोंग ने बताया, "हम गांधी की कुछ चुनी हुई रचनाओं का पाँच खंडों का अनुवाद करेंगे जिसमें उनकी आत्मकथा, 'सत्याग्रह इन साउथ अफ्रीका', 'नैतिक धर्म' और 'गीता पर प्रवचन' शामिल हैं.
किताबों के साथ-साथ रवीन्द्रनाथ टैगोर, सरदार पटेल, ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों को और कई अन्य लोगों को लिखे गांधी जी के पत्रों में से कुछ का और उनके 81 भाषणों का भी हम मंदारिन में अनुवाद करेंगे."


प्रोफेसर कहते हैं कि चीनी भाषा में उपलब्ध गांधी साहित्य में युवाओं को विशेष दिलचस्पी है. हम इस साल के अंत तक इन अनुवादित खंडों का प्रकाशन कर देंगे.

प्रशंसित लोगों के टॉप टेन में चार भारतीय

एक सर्वे में दुनिया के जीवित 10 सबसे प्रशंसनीय लोगों की सूची में चाल भारतीय सचिन तेंदुलकर, नरेंद्र मोदी, अमिताभ बच्चन और अब्दुल कलाम शामिल हैं.
यह सर्वेक्षण ब्रितानी अख़बार टाइम्स के लिए क्लिक करेंयूगव ने किया है.
वहीं क्लिक करेंइस सूची में अन्ना हज़ारे इस सूची में 14वें स्थान पर और अरविंद केजरीवाल 18वें स्थान पर हैं. भारतीय उद्योगपति रतन टाटा सूची में तीसवें स्थान पर हैं.
सर्वे के मुताबिक माइक्रोसॉफ्ट कम्पनी के संस्थापक बिल गेट्स दुनिया के सबसे पसंदीदा जीवित व्यक्ति हैं. अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा दूसरे स्थान पर हैं. इस सर्वेक्षण में दुनिया के 13 देशों के लगभग 14,000 लोगों ने हिस्सा लिया .

वाईओयूजीओवी की सूची

  1. बिल गेट्स
  2. बराक ओबामा
  3. व्लादिमीर पुतिन
  4. पोप फ्रांसिस
  5. सचिन तेंदुलकर
  6. शी जिनपिंग
  7. नरेंद्र मोदी
  8. वारेन बफ़ेट
  9. अमिताभ बच्चन
  10. अब्दुल कलाम
सर्वे के बाद जारी की गई सूची के अनुसार बिल गेट्स 10.10 प्रतिशत लेकर पहले स्थान पर रहे. ओबामा 9.27 प्रतिशत वोट लेकर दूसरे जबकि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन 3.84 प्रतिशत के साथ तीसरे स्थान पर रहे.
रोमन कैथोलिक ईसाइयों के शीर्ष धर्मगुरु पोप फ्रांसिस 3.43 प्रतिशत वोटों के साथ चौथे स्थान पर रहे.

मोदी 7वें स्थान पर

भारत के पूर्व क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर 3.28 प्रतिशत वोट हासिल कर पांचवें स्थान पर हैं. इस सूची में चीन के राष्ट्रपति शी जिंपिन 2.86 प्रतिशत वोट लेकर छठे स्थान पर रहे.
सर्वेक्षण के अनुसार भारत में विपक्षी भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी 2.55 प्रतिशत वोट लेकर सातवें जबकि प्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन 2.01 प्रतिशत मतों के साथ नौवें स्थान पर रहे. भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम सूची में दसवें पायदान पर हैं.
पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेटर और तहरीक इंसाफ पार्टी के अध्यक्ष इमरान खान 0.95 प्रतिशत वोट लेकर बारहवें स्थान पर रहे.
अमरीका में पोप फ्रांसिस राष्ट्रपति ओबामा से दोगुनी संख्या में वोट लेकर सबसे पसंदीदा व्यक्ति रहे. बिल गेट्स को चीन में सबसे अधिक वोट मिले.

कंपनी का कहना है कि इस शोध से पता चलता है कि अगर यह सर्वेक्षण एक महीने पहले किया गया होता तो नेल्सन मंडेला इस सूची में शीर्ष पर रहते.

भारतीय उच्च शिक्षा: 10 तथ्य, सैकड़ों सवाल

दिल्ली विश्वविद्यालय
भारत के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में शुमार दिल्ली विश्वविद्यालय विश्वस्तर के विश्वविद्यालयों में नदारद.
संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमरीका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है लेकिन जहाँ तक गुणवत्ता की बात है दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है.
द टाइम्स विश्व यूनिवर्सिटीज़ रैंकिंग (2013) के अनुसार अमरीका का केलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी चोटी पर है जबकि भारत के पंजाब विश्वविद्यालय का स्थान विश्व में 226 वाँ है.
कभी-कभी तथ्य अपनी कहानी ख़ुद कहते हैं. इसलिए चलिए तथ्यों की ही बात की जाए.

उच्च शिक्षा की तस्वीर

तथ्य 1: स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है. भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है. अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी है.
तथ्य 2: इस अनुपात को 15 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत को 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा जबकि 11वीं योजना में इसके लिए सिर्फ़ 77,933 करोड़ रुपए का ही प्रावधान किया गया था.
तथ्य 3: हाल ही में नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं. (पर्सपेक्टिव 2020) भारत के पास दुनिया की सबसे बड़े तकनीकी और वैज्ञानिक मानव शक्ति का ज़ख़ीरा है इस दावे की यहीं हवा निकल जाती है.
तथ्य 4: राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमज़ोर है.

आईआईटी मुंबई जैसे शिक्षण संस्थान भी वैश्विक स्तर पर जगह नहीं बना पाते.
तथ्य 5: भारतीय शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी है.
तथ्य 6: भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन तब भी ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहते हैं.
तथ्य 7: आज़ादी के पहले 50 सालों में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला. पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई.
तथ्य 8: अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ़ प्रतिशत असामान्य हद तक बढ़ जाता है. इस साल श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कामर्स के बी कॉम ऑनर्स कोर्स में दाखिला लेने के लिए कट ऑफ़ 99 फ़ीसदी था.
तथ्य 9: अध्ययन बताता है कि सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है.
तथ्य 10: भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानी करीब 43 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करते हैं क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर घटिया है.

शोध में पिछड़ा भारत

उच्च शिक्षा, दिल्ली विश्वविद्यालय
15 साल पहले मैनेजमेंट गुरु पीटर ड्रकर ने एलान किया था, "आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जाएगा. दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस तरह का है."
भारत में शिक्षा क्षेत्र की बड़ी शख़्सियत और ज्ञान आयोग के प्रमुख सैम पित्रोदा का भी कहना है, ''आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है."
इंफ़ोसिस के प्रमुख नारायण मूर्ति ध्यान दिलाते हैं कि अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमरीका ने सेमी कंडक्टर, सूचना तकनीक और बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में इतनी तरक्की की है. इस सबके पीछे वहाँ के विश्वविद्यालयों में किए गए शोध का बहुत बड़ा हाथ है.
"आजकल वैश्विक अर्थ व्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है."
सैम पित्रोदा, अध्यक्ष, भारतीय ज्ञान आयोग
दुनिया भर में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुए शोध में से एक तिहाई अमरीका में होते हैं. इसके ठीक विपरीत भारत से सिर्फ़ 3 फ़ीसदी शोध पत्र ही प्रकाशित हो पाते हैं. भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के प्रमुख नंदन नीलेकणी कहते हैं कि भारत को अपने डेमोग्राफ़िक लाभांश का फ़ायदा उठाना चाहिए.
इस समय भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है. इनमें से 12 करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच की है. अगर इन्हें ज्ञान और हुनर से लैस कर दिया जाए तो ये अपने बूते पर भारत को एक वैश्विक शक्ति बना सकते हैं.
योजना आयोग के सदस्य और पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व उप कुलपति नरेंद्र जाधव इस बात से हैरान हैं कि कई विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों से पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है. उनका कहना है, ''पुराना पाठ्यक्रम और ज़मीनी हकीकतों से दूर शिक्षक उच्च शिक्षा को मारने के लिए काफ़ी हैं.''
जाने माने शिक्षाविद प्रोफ़ेसर यशपाल कहते है कि शिक्षा में निजीकरण की ज़रूरत तो है लेकिन इस पर भी नियंत्रण रखा जाना चाहिए. वे कहते हैं, ''ये ना हो कि पहले शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने वाला संस्था का कुलपति बने और फिर अपने 25 साल के लड़के को उसका उप कुलपति बनाए."

निजीकरण का नफा-नुकसान

कॉरनेल विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर और वर्ल्ड बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु कहते हैं, "आम धारणा ये है कि अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो वो अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है. ये एक ग़लत तर्क है. यह तो उसी तरह सोचने की तरह हुआ कि अगर टाटा मोटर्स को लाभ कमाना है तो इसे छोटी कार बनाने में रुचि नहीं रखनी चाहिए. हालांकि वास्तविकता यह है कि अगर उसे लाभ कमाना है तो उसे छोटी कार ही बनानी चाहिए. इसी तरह शिक्षा में अगर कोई लाभ कमाने वाली कंपनी विश्वविद्यालय शुरू करना चाहती है तो हमें उसके आड़े नहीं आना चाहिए.''
हर साल भारतीय स्कूल से पास होने वाले छात्रों में महज 15 फ़ीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएं, यह सुनिश्चित करने के लिए पूरे भारत में 1500 नए विश्वविद्यालय खोले जाने की ज़रूरत पड़ेगी. इस सबके लिए धन सिर्फ़ निजी क्षेत्र से ही आ सकता है.
कौशिक बसु कहते हैं, "हमें ये स्वीकार करना चाहिए कि किसी भी सरकार, खास कर विकासशील देश की सरकार के लिए ये संभव नहीं है कि वो मौजूदा 300 विश्वविद्यालयों को ही ढंग से चला पाए. यह तभी संभव है जब वित्तीय मापदंडों को दरकिनार कर दिया जाए या उच्चतर शिक्षा को घटिया दर्जे का बना दिया जाए."

दुनिया का नंबर दो विश्वविद्यालय है हार्वर्ड विश्वविद्यालय.
विशेषज्ञों की राय है कि 'रन ऑफ़ द मिल' यानी बने बनाए ढर्रे पर स्नातक पैदा करने की प्रवृत्ति से जितनी जल्दी छुटकारा पाया जाए उतना ही अच्छा है. आजकल का सबसे प्रचलित जुमला है नौकरी से जुड़े हुए कोर्स.
फ़ैसला लेने वालों के बीच ‘वोकेशनल’ शिक्षा या व्यावसायिक शिक्षा का वो रुतबा अब नहीं रहा क्योंकि इसके साथ ये बट्टा लगा हुआ है कि ये पढ़ाई में पीछे रहने वालों की ही पसंद है.

गुणवत्ता की समस्या

उच्चतर शिक्षा पर खासा शोध करने वाले पूर्व आईएएस अफ़सर पवन अग्रवाल कहते हैं कि अब समय आ गया है कि इस धारणा को बदला जाए कि विश्वविद्यालय शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को भद्र बनाना है.
भारत सरकार ने भी इसे शिक्षा मंत्रालय कहना बंद कर मानव संसाधन मंत्रालय कहना शुरू कर दिया है. ब्रिटेन में भी अब इसे शिक्षा और कौशल मंत्रालय कहा जाने लगा है. ऑस्ट्रेलिया में इसे शिक्षा, रोज़गार और कार्यस्थल संबंध मंत्रालय कहा जाता है.
एनआईआईटी के संस्थापक राजेंद्र सिंह पवार कहते हैं, "अब उस जाति व्यवस्था से छुटकारा पाने की ज़रूरत है जिसने एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था को जन्म दिया है जहाँ अगर एक इंसान व्यावसायिक शिक्षा लेने के लिए ट्रेन से उतरता है तो उसे बाद में उच्च शिक्षा के डिब्बे में सवार होने की अनुमति नहीं होती."
21वीं सदी की उच्च शिक्षा को तब तक स्तरीय नहीं बनाया जा सकता जब तक भारत की स्कूली शिक्षा 19वीं सदी में विचरण कर रही हो. स्कूली शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं में पिछले एक दशक में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है लेकिन पब्लिक रिपोर्ट ऑन बेसिक एजुकेशन (प्रोब) के सदस्य एके शिव कुमार कहते हैं कि असली समस्या गुणवत्ता की है.
"आम धारणा ये है कि अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो वो अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है. ये एक ग़लत तर्क है."
कौशिक बसु, मुख्य अर्थशास्त्री, विश्व बैंक
ये एक कड़वा सच है कि भारत के आधे से अधिक प्राथमिक विद्यालयों में कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती.
अब समय आ गया है कि चाक और ब्लैक बोर्ड के ज़माने को भुला कर गांवों में भी प्राथमिक शिक्षा के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जाए.
मनमोहन सिंह ने साल 1991 में जो सुधार भारतीय अर्थव्यवस्था में किए थे उसी स्तर के सुधारों की दरकार साल 2013 में भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में है. अब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसे संस्थानों से आगे देखने की ज़रूरत है जिन्हें 50-60 साल पहले स्थापित किया गया था.

सैम पित्रोदा कहते हैं, "आज नियम-कानूनों और भ्रष्टाचार की वजह से शिक्षा के क्षेत्र में घुसना लगभग नामुमकिन हो गया है. अगर आप घुस भी जाते हैं और आपको लाइसेंस मिल भी जाता है तो आप शिक्षा की गुणवत्ता नहीं बनाए रख सकते. जबकि होना इसका ठीक उलटा चाहिए.''

दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगा भारत

नई दिल्ली: भारत 2028 तक जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। लंदन स्थित आर्थिक सलाहकार कंपनी सीईबीआर ने यह अनुमान लगाया है।

सीईबीआर का कहना है कि 2028 में चीन और अमेरिका के बाद भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगा। सीईबीआर की 2013 के लिए विश्व आर्थिक लीग टेबल रिपोर्ट में कहा गया है कि इस सूची में भारत इस साल कनाडा से एक पायदान खिसक गया है। इस समय भारत दुनिया की 11वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि जनांकिकी और आर्थिक वृद्धि के बूते भारत इस सूची में आगे बढ़ेगा और 2028 तक वह जापान को पछाड़ते हुए दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। यह रिपोर्ट सलाहकार कंपनी की सालाना गणना है।

2012 के लिए इसका आधारभूत आंकड़ा अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के विश्व आर्थिक परिदृश्य तथा जीडीपी अनुमान जो सीईबीआर के वैश्विक संभावना मॉडल पर आधारित है। यह मॉडल वृद्धि, महंगाई तथा विनिमय दरों का अनुमान लगाता है।

यह रिपोर्ट 30 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का साल अंत का अनुमान लगाती है। इसमें उन देशों का उल्लेख होता है, जो 5, 10 और 15 साल बाद दुनिया की 30 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में होंगे

90 साल की उम्र में बने डॉक्टर

बुजुर्ग और पीएचडी
90 साल की उम्र में पीएचडी करने वाले वूफ 20 सालों तक स्कूल टीचर रहे हैं.
नब्बे वसंत देख चुके एक बुज़ुर्ग ने लैंकेस्टर विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की है. दूसरे विश्व युद्ध में हिस्सा ले चुके सेवानिवृत शिक्षक एरिक वूफ ने स्कूल छोड़ने के 74 साल बाद पीएचडी की.
लंदन के एक मजदूर के बेटे डॉ वूफ ने सोलह साल की उम्र में नौकरी करने के लिए स्कूल छोड़ दिया था लेकिन बाद में उन्होंने गणित के शिक्षक के रूप में नौकरी की और सेवानिवृत होने के बाद पढ़ाई पूरी करने लौट आए.
डॉ वूफ ने कहा, " डॉक्टरेट होना मेरे जीवन का सबसे सम्मानजनक अनुभव है. स्कूल के दिनों में मैं विश्वविद्यालय के बारे में नहीं सोचता था.
स्कूल के दिनों में उन्हें स्कॉलरशिप मिली थी लेकिन युद्ध शुरू होने के कारण उन्हें 16 साल की उम्र में ही पढ़ाई छोड़ के जाना पड़ा और उनकी विश्वविद्यालय की पढ़ाई अधूरी रह गई.
मेरे पिता का मानना था कि "मुझे काम करके घर के बजट में योगदान देना चाहिए. आक्रमण शुरू होने से पहले मैं वापस लंदन आ गया और शहर के पश्चिमी भाग के एक ऑफिस में नौकरी करने लगा. घर ध्वस्त होने से पहले हमें घर छोड़ के जाना था."

पढ़ाने में आत्मसंतुष्टि

युद्ध में सेना को अपनी सेवा देने के बाद जब वो नौकरी पर लौटे तो उनके पास 39 साल की अवस्था में एक अच्छी खासी नौकरी के साथ बीवी और चार बच्चे थे."
वे कहते हैं, "मैंने अपने आप से पूछा क्या मैं ऐसी ही जिंदगी जीना चाहता था शायद नहीं. मेरी बीवी का रवैया काफी सहयोगपूर्ण था."
इसलिए उन्होंने कॉलेज़ में प्रशिक्षिण लेने के बाद क्यूमबरिया के एप्पलबाई स्कूल में गणित शिक्षक के रूप में नौकरी शुरू कर दी. वे पढ़ाने के काम से 20 साल तक जुड़े रहे.
उनका कहना है, "पढ़ाने में मुझे बहुत मजा आता है और इसमें मुझे आत्मसंतुष्टि मिलती है."
डॉ वूफ ने वर्ष 2003 में ईस्ट एंजेलिया विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री हासिल की.
जब उन्होंने साल 2008 में क्यूमबरिया विश्वविद्यालय में फिर से अपनी पढ़ाई शुरू की तो वहां के काम करने वालों ने लैंसेस्टर विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के लिए प्रोत्साहित किया.
बूफ बताते हैं, " विश्वविद्यालय का महौल बहुत उत्साहवर्द्धक और प्रेरणादायी था. दूसरे छात्र और कर्माचारी काफी मददगार थे. उनसे मिलना-जुलना मुझे बहुत अच्छा लगता था."
उनकी बीवी की मौत हो चुकी है. उनका कहना है " मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि इस उम्र में भी स्वस्थ हूं और इतने सारे लोग मुझे प्यार करते हैं ."